मुसीबत पर सब्र और रज़ा बिल क़ज़ा

इरशादे रब्बानी हैः

اَمْ حَسِبْتُمْ اَنْ تَدْخُلُوا الْجَنَّةَ وَ لَمَّا يَاْتِكُمْ مَّثَلُ الَّذِيْنَ خَلَوْا مِنْ قَبْلِكُمْ١ؕ مَسَّتْهُمُ الْبَاْسَآءُ وَ الضَّرَّآءُ وَ زُلْزِلُوْا حَتّٰى يَقُوْلَ الرَّسُوْلُ وَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَهٗ مَتٰى نَصْرُ اللّٰهِ١ؕ اَلَاۤ اِنَّ نَصْرَ اللّٰهِ قَرِيْبٌ

(क्या तुम बहरे सूरत सिराते मुस्तक़ीम पर कायम रहोगे) या तुम ने समझ रखा है के जन्नत में दाख़िल हो जाओगे, हालाँके अभी तुम्हें उन जैसे हालात पेश ही नहीं आए जो तुम्हारे अगलों को पेश आ चुके हैं? उन पर तंगियाँ और तकलीफ़ें आईं और उन्हें हिलाया और बेचैन किया जाता रहा हत्ता के रसूल और उनके साथी अहले ईमान चीख़ उठे कि अल्लाह की मदद कब आएगी? आगाह रहो अल्लाह की मदद क़रीब है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम: बक़रह -214)

एक और जगह इरशाद फ़रमायाः

وَ لَنَبْلُوَنَّكُمْ بِشَيْءٍ مِّنَ الْخَوْفِ وَ الْجُوْعِ وَ نَقْصٍ مِّنَ الْاَمْوَالِ وَ الْاَنْفُسِ وَ الثَّمَرٰتِ١ؕ وَ بَشِّرِ الصّٰبِرِيْنَۙ۰۰۱۵۵ الَّذِيْنَ اِذَاۤ اَصَابَتْهُمْ مُّصِيْبَةٌ١ۙ قَالُوْۤا اِنَّا لِلّٰهِ وَ اِنَّاۤ اِلَيْهِ رٰجِعُوْنَؕ۰۰۱۵۶ اُولٰٓىِٕكَ عَلَيْهِمْ صَلَوٰتٌ مِّنْ رَّبِّهِمْ وَ رَحْمَةٌ١۫ وَ اُولٰٓىِٕكَ هُمُ الْمُهْتَدُوْنَ

और हम ज़रूर तुम्हें ख़ून-ओ-ख़तर, फ़ाक़ाकशी, जान-ओ-माल के नुक़सानात और आमदनियों के घाटे में मुब्तिला करके तुम्हारी आज़माईश करेंगे। इन हालात में जो लोग सब्र करें और जब कोई मुसीबत पड़े तो कहें के हम अल्लाह ही के हैं और अल्लाह ही की तरफ़ हमें पलट कर जाना है, (उन्हें ख़ुशख़बरी दे दो। उन पर उनके रब की तरफ़ से बड़ी इनायात होंगी।) उसकी रहमत उन पर साया करेगी और ऐसे ही लोग राहे रास्त पर हैं। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआन अल बक़रह -155 से157)

لَتُبْلَوُنَّ فِيْۤ اَمْوَالِكُمْ وَ اَنْفُسِكُمْ١۫ وَ لَتَسْمَعُنَّ مِنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَ مِنَ الَّذِيْنَ اَشْرَكُوْۤا اَذًى كَثِيْرًا١ؕ وَ اِنْ تَصْبِرُوْا وَ تَتَّقُوْا فَاِنَّ ذٰلِكَ مِنْ عَزْمِ الْاُمُوْرِ

तुम्हें (मुसलमानों को) माल और जान दोनों की आज़माईश पेश आकर रहेगी और तुम एहले किताब और मुशरिकीन से बहुत तकलीफ़देह बातें सुनोगे। अगर तुम इन सब हालात में सब्र और ख़ुदा तरसी की रविश पर क़ायम रहोगे तो ये बड़े हौसले का काम है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीम: आले इमरान-186)

اِنَّمَا يُوَفَّى الصّٰبِرُوْنَ اَجْرَهُمْ بِغَيْرِ حِسَابٍ

हम सब्र करने वालों को बग़ैर हिसाब अज्र देंगे। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआने करीमः अल ज़ुमर-10)
وَ بَشِّرِ الصّٰبِرِيْنَۙ

सब्र का दामन थामे रहने वालों को ख़ुशख़बरी दीजिए। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीमः अल बक़रह-155)

يٰۤاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اصْبِرُوْا وَ صَابِرُوْا وَ رَابِطُوْا١۫ وَ اتَّقُوا اللّٰهَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ
ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो, सब्र से काम लो, बातिल परस्तों के मुक़ाबले में पामर्दी दिखाओ। हक़ की ख़िदमत के लिए कमर बस्ता रहो, और अल्लाह से डरते रहो, उम्मीद है के फ़लाह पाओगे। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : आले इमरान-200)

وَ لَمَنْ صَبَرَ وَ غَفَرَ اِنَّ ذٰلِكَ لَمِنْ عَزْمِ الْاُمُوْرِ
अलबत्ता जो शख़्स सब्र से काम ले और दरगुज़र कर दे, तो ये बड़ी हिम्मत के कामों में से है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीमः अश्शूरा -43)

يٰۤاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اسْتَعِيْنُوْا بِالصَّبْرِ وَ الصَّلٰوةِ١ؕ اِنَّ اللّٰهَ مَعَ الصّٰبِرِيْنَ
ऐ ऐहल ईमान! सब्र और नमाज़ के ज़रीये मदद तलब करो, बेशक अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीम बक़रह -153)

मुसनद अहमद में हज़रत महमूद इब्ने लबीद (رضي الله عنه) से रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) का इरशाद नक़ल हैः

((إن اللہ عز وجل إذا أحب قوماً ابتلاھم فمن صبر فلہ الصبر
 ومن جزع فلہ الجزع))

अल्लाह سبحانه وتعالیٰ जब किसी क़ौम से मुहब्बत करता है तो उनको आज़माईश में मुब्तिला करता है, लिहाज़ा जो सब्र करता है, तो उसके लिए सब्र का बदला है, और जो जज़ा फ़ज़ा करता है इसके लिए जज़ा-ओ-फ़ज़ा होती है।

इसी तरह मुसनद अहमद ही में हज़रत मुसअ़ब बिन साद (رضي الله عنه) अपने वालिद से रिवायत करते हैं के नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) से मैंने दरयाफ़्त कियाः ऐ रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) कौन से लोग सख़्त परेशानी और आज़माईश में मुब्तिला होते हैं? आप ने फ़रमायाः

(( الأنبیاء ثم الصالحون ثم الأمثل فالأمثل من الناس یبتلی الرجل علی حسب دینہ فإن کان في دینہ صلابۃ زید في بلاۂ وإن کا في دینہ رقۃٌ خفف عنہ وما یزال البلاء بالعبد حتی یمشی علی ظھر الأرض لیس علیہ خطیءۃ))

अन्बिया किराम इसके बाद सालिहीन नेको कार इसके बाद हस्बे दर्जा लोग आज़माईश में मुब्तिला होते हैं, आदमी अपने दीन के मुताबिक़ परेशानी में मुब्तिला होता है। अगर वो अपने दीन में मज़बूत और ठोस है तो उसकी आज़माईश भी शदीद होती है और अगर वो अपने दीन में कमज़ोर है तो आज़माईश भी हल्की होती है, यहाँ तक के वो रूऐ ज़मीन में ऐसे चलता है के उस पर कोई गुनाह नहीं रह जाता, (इस के तमाम गुनाह मिट जाते हैं)।

मुस्लिम शरीफ़ में अबू मालिक (رضي الله عنه) से रिवायत है के रसूले अकरम ने फ़रमायाः
((۔۔۔ والصبر ضیاء۔۔۔))
सब्र रौशनी है।
अबू सईद ख़ुदरी से मुत्तफिक़ अ़लैह हदीस रिवायत है के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)  ने फ़रमायाः
((۔۔۔ومن یتصبر یصبرہ اللہ، وما أعطي أحد عطاء خیرًا وأوسع من الصبر))
जो शख़्स सब्र करने की कोशिश करता है अल्लाह उसको सब्र अ़ता करता है, किसी को सब्र से ज़्यादा बेशक़ीमत नेअ़मत अ़ता नहीं की गई।

अबू यहया सुहैब बिन सिनान (رضي الله عنه) ने कहा कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)  ने फ़रमायाः

((۔۔۔ وإن أصابتہ ضراء صبر فکان خیراً لہ))
अगर किसी को परेशानी लाहक़ होती है और वो इस पर साबिर रहता है, तो ये उसके लिए ख़ैर का बाइस है।

हज़रत अनस (رضي الله عنه) कहते हैं: नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) एक औरत के पास गुज़रे, वो एक क़ब्र के पास बैठी रो रही थी, आप ने फ़रमायाः

(( اتقي اللہ واصبري، فقالت إلیک عني، فإنک لم تصب بمصیبتي، ولم تعرفہ، فقیل لھا إنہ النبيا، فأتت باب النبي ا فلم تجد عندہ بوابین، فقالت لم أعرفک فقال: إنما الصبر عند الصدمۃ الأولی))

अल्लाह से डरो और सब्र करो। तो उसने कहाः आप मुझे छोड़िए क्योंकि आप पर मेरे जैसी मुसीबत नहीं टूटी है। उस औरत से कहा गया ये रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) थे। चुनांचे वो नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) के दरवाज़े पर आई और कोई पहरेदार ना था, उसने कहाः मैं आप को नहीं पहचान सकी थी, आप ने फ़रमाया सब्र वो है जो सदमे की पहली चोट पर किया जाये।

बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत अबू हुरैराह (رضي الله عنه) से मरवी है के रसूले अकरम ने फ़रमाया के अल्लाह سبحانه وتعالیٰ का क़ौल हैः

(( ما لعبدی المؤمن عندي جزاء إذا قبضت صفیہُ من اھل الدنیا ثم أحتسبہ إلا الجنۃ))

जब मोमिन बंदे के किसी अ़ज़ीज़ या दोस्त की मौत होती है और मोमिन उसे अल्लाह की रज़ा मान कर सब्र करता है, तो इसका बदला मेरे नज़दीक सिर्फ़ जन्नत है।

एक मर्तबा हज़रत आईशा (رضي الله عنه)ا ने रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) से ताऊ़न (प्लेग) के बारे में सवाल किया, तो नबी अकरम ने बतायाः

((أنہ کان عذاباً یبعثہ اللہ علی من یشاء، فجعلہ اللہ تعالی رحمۃ للمؤمنین، فلیس من عبد یقع في الطاعون، فیمکث في بلدہ صابراً محتسباً یعلم أنہ لا یصیبہ إلا ماکتب اللہ لہ، إلا کان لہ مثل أجر الشھید))

ये एक अ़ज़ाब है जिसको अल्लाह जिस पर चाहता है भेजता है, और मोमिन के लिए उसको रहमत का बाइस बनाया है। अगर वोह ताऊ़न की बीमारी में गिरफ़्तार होता है और उसी शहर में ठहरा रहता है सब्र करता है और गिरिया ज़ारी से परहेज़ करता है, ये जानते हुए के उस पर उतनी ही मुसीबत आएगी जितनी अल्लाह ने इसके लिए मुक़द्दर कर रखी है तो ऐसे बंदे के लिए शहीद के बराबर अज्र है। (बुख़ारी)

हज़रत अनस (رضي الله عنه) कहते हैं के मैंने रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) को कहते सुना है के अल्लाह سبحانه وتعالیٰ फ़रमाता हैः

(( إذا ابتلیت عبدي بحبیبتیہ فصبر، عوضتہ منھما الجنۃ))
जब मैं अपने बंदे को उसकी दो मेहबूब चीज़ें (आँखें) छीन कर आज़माईश में मुब्तिला करता हूँ और वो सब्र करता है तो उसके बदले जन्नत अ़ता करता हूँ।

अ़ता बिन अबी रिबाह कहते हैं के इब्ने अ़ब्बास (رضي الله عنه) ने मुझ से कहाः

ألا أریک امرأۃ من أہل الجنۃ؟ فقلت: بلی فقال: ((ھذہ المرأۃ السوداء، أتت النبي ا فقالت: إني أصرع، وإني أتکشف، فادع اللہ تعالی لي، قال: إن شئت صبرت ولک الجنۃ، وإن شئت دعوت اللہ تعالی أن یعافیک، فقالت أصبر، فقالت إني أتکشف، فادع اللہ أن لا أتکشف فدعا لھا))

क्या मैं तुम को एैसी औरत ना दिखाऊ जो के एहले जन्नत में से है? मैंने कहा! क्यों नहीं? इब्ने अ़ब्बास (رضي الله عنه) ने कहाः ये स्याह फ़ाम औरत है, नबी अकरम के पास आई और कहाः मुझे मिर्गी के दौरे पड़ते हैं जिसकी वजह से मैं अपने कपड़े हटा कर मुनकशिफ़ (निर्वस्त्र) हो जाती हूँ। आप मेरे लिए अल्लाह से दुआ करें, आप ने फ़रमायाः अगर तू चाहे तो सब्र करे तो तेरे लिए जन्नत है और अगर चाहे तो तेरे लिए अल्लाह से दुआ करूं के अल्लाह तुझे अपनी आफ़ियत में रखे, तो उस औरत ने कहाः मैं सब्र करूंगी, फिर कहाः के मैं मुनकशिफ़ हो जाती हूँ लिहाज़ा आप अल्लाह से दुआ कीजिए के मेरे साथ ऐसा ना हो, चुनांचे आपने उसके लिए दुआ फ़रमाई।

अ़ब्दुल्लाह बिन अबी औफ़ा (رضي الله عنه) कहते हैं के रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) दुश्मन से जंग के इंतिज़ार में अपने लोगों के दरमियान थे, जब सूरज डूबने का वक़्त हुआ तो फ़रमायाः

(( یا أیھا الناس لا تتمنوا لقاء العدو، واسألوا اللہ العافیۃ، فإذا لقیتموھم فاصبروا، واعلموا أن الجنۃ تحت ظلال السیوف، ثم قال: اللھم منزل الکتاب، ومجري السحاب وھازم الأحزاب، أھزمھم وانصرنا علیھم))

ऐ लोगों दुश्मन से मुलाक़ात की तमन्ना ना करो और अल्लाह سبحانه وتعالیٰ से आफ़ियत तलब करो, और अगर तुम्हारा उनसे सामना हो जाये तो इस्तिक़ामत दिखाओ और ये जान लो के जन्नत तलवारों के साय तले है फिर आप ने दुआ की ऐ अल्लाह, किताब को नाज़िल करने वाले, बादलों को चलाने वाले, लश्करों को शिकस्त देने वाले! दुश्मनों को शिकस्त दे और उन पर हमें फ़तह इनायत फ़रमा।

ये तो मुसीबत और आज़माईश के वक़्त सब्र करने के ताल्लुक़ से चंद बातें थीं, जहाँ तक अल्लाह سبحانه وتعالیٰ की क़ज़ा से राज़ी रहने की बात है तो ख़ुद नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) ये दुआ मांगा करते थे, जिसे इमाम बुख़ारी ने अल अदब अल मुफर्रद में और हाकिम ने मुस्तदरक में नक़ल किया है और सही बताया है जिस से अलज़ेहबी मुत्तफिक़ हैं

((اسئلک الرضا بعد القضاء ))
मैं तुझ से क़ज़ा के बाद तेरी रज़ा का सवाल करता हूँ।

अल्लाह سبحانه وتعالیٰ ने बंदे की ख़ुदसुपुर्दगी की तारीफ़़ इन अल्फाज़ में की। हज़रत अबू हुरैराह (رضي الله عنه) से हदीस मरवी है जिसे हाकिम ने नक़ल किया है और सही उल असनाद बताया है यही बात अ़ल्लामा इब्ने हजर ने कही है।

((ألا أعلمک أو أدلک علی کلمۃ من تحت العرش من کنز الجنۃ: لا حول ولا قوۃ إلا باللہ، یقول اللہ عز وجل أسلم عبدي واستسلم))

क्या मैं तुम को ना बतलाऊँ या उस कलिमे की तरफ़ रहनुमाई ना करूं, जो अ़र्श के नीचे जन्नत के ख़जानों में से है (लाहौला वला कु़व्वता इल्ला बिल्ला) अल्लाह سبحانه وتعالیٰ फ़रमाता है, मेरा बंदा फ़र्मांबरदार हुआ, और मेरी ख़ुदसुपुर्दगी इख़्तियार की।

ख़ुदावंद क़ुद्दूस की क़ज़ा से नाराज़गी हराम है। अ़ल्लामा क़राफ़ी ने अपनी किताब (अल ज़ख़ीरा) में इस पर इज्माए मुज्तहिदीन नक़ल किया है जिस के अल्फाज़ हैं

((السخط بالقضاء حرام اجماعا))
अल्लाह سبحانه وتعالیٰ की क़ज़ा से नाराज़गी के हराम होने पर इज्माअ़ है।

क़ज़ा और मक़ज़ी के फ़र्क़ को वाज़ेह करते हुए कहा हैः आदमी अगर किसी जिस्मानी अज़ीयत या बीमारी में मुब्तिला होता है और इसके दर्द से परेशान होता है तो ये क़ज़ाऐ इलाही से अ़दम रज़ा (राज़ी ना रहना) नहीं हुई बल्कि ये मक़ज़ी होगी। इसके बरअ़क्स अगर वो ये कहता है, मैंने क्या किया था के ये तकलीफ़ मुझे लाहक़ हो गई या मेरा क्या गुनाह था, मैं इसका क़तई मुस्तहिक़ ना था, तो ये कज़ाऐ इलाही से अ़दम रज़ा हुई। क़ज़ाए इलाही से नाराज़गी की हुर्मत पर महमूद बिन लबीद की ये हदीस शाहिद है के नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((إن اللہ إذا أحب قوماً ابتلاھم، فمن رضي فلہ الرضی، ومن
سخط فلہ السخط))

अल्लाह जब किसी क़ौम से मुहब्बत रखता है तो वोह उनको आज़माईशों में गिरफ़्तार कर देता है, अब जो इस से राज़ी होता है तो उसके लिए अल्लाह की रज़ामंदी है और जो नाराज़ होता है तो अल्लाह की नाराज़गी उसके मुकद्दर में आ जाती है।
(अहमद, तिरमिज़ी)
रज़ामंदी और नाराज़गी इंसान के अफ़आल में से हैं, चुनांचे उसके सब्र और शुक्र को सवाब से नवाज़ा जाता है और नाराज़गी पर वो अ़ज़ाब का मुस्तहिक़ होता है। जबकि क़ज़ा फ़ी नफ़्सिही बंदे के इख़्तियार में नहीं होती, चुनांचे आदमी से क़ज़ा के ताल्लुक़ से बाज़पुर्स नहीं होगी इसलिए के क़ज़ा बहरहाल उसके इख़्तियार में नहीं है, उससे तो क़ज़ा के ताल्लुक़ से उसकी रज़ा और अ़दम रज़ा की जवाबदेही होगी, क्योंकि ये चीज़ उसके इख़्तियार में हैः

وَ اَنْ لَّيْسَ لِلْاِنْسَانِ اِلَّا مَا سَعٰى
और ये के इंसान के लिए बस वही है जो कुछ उसने सअ़ी की। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआने करीमः अल नजम -39)

और हुक्मे इलाही से इसका इत्मिनान और उससे रज़ामंदी उसके गुनाहों का कफ़्फ़ारा होगी और इसकी ग़लतियों को मिटाने का ज़रीया बनेगी, इस मआनिये और मफहूम पर मुतअ़द्दिद अहादीस दलालत करती हैं, चुनांचे हज़रत अ़ब्दुल्लाह (رضي الله عنه) से मरवी हदीस है के अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((۔۔۔ ما من مسلم یصیبہ أذی شوکۃ فما فوقھا إلا کفر اللہ بھا سیئاتہ کما تحط الشجرۃ ورقھا))
ऐसा कोई मुस्लिम नहीं जिसे ख़्वाह एक कांटा चुभने भर की तकलीफ़ हो, सिवाए इसके के अल्लाह سبحانه وتعالیٰ इस अज़ीयत के सबब उसके गुनाह इस तरह धो देता है जैसे 
दरख़्त के पत्ते झड़ते हैं। (मुत्तफिक़ अ़लैह)
इसी तरह हज़रत आइशा (رضي الله عنه)ا से मुत्तफिक़ अ़लैह हदीस मरवी है के नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((لا تصیب المؤمن شوکۃ فما فوقھا إلا قص اللہ بھا من خطیءۃ))
अगर किसी मोमिन को छोटा सा कांटा भी लगता है तो अल्लाह इस (तकलीफ़) की वजह से इसके गुनाह माफ़ फ़रमाता है।

हज़रत अबू हुरैराह (رضي الله عنه) और अबू सईद (رضي الله عنه) की मुत्तफिक़ अ़लैह रिवायत में है के रसूले अकरम  (صلى الله عليه وسلم)  ने फ़रमायाः

((ما یصیب المؤمن من نصب ولا وصب ولا ھم ولا حزن ولاغم، حتی الشوکۃ یشا کھا، إلا کفر اللہ بھا من خطایاہ))

अगर किसी मोमिन बंदे को कोई परेशानी या बीमारी लाहक़ होती है या उसको कोई ग़म या हुज़्न होता है हत्ता के अगर उसे कोई कांटा भी चुभ जाये तो अल्लाह इसके बदले उसके गुनाह माफ़ कर देता है।

इस ताल्लुक़ से साद, मुआविया, इब्ने अ़ब्बास, जाबिर, उम्मुल ऊला, अबूबक्र, अ़ब्दुर्रहमान बिन अज़हर, हसन, अनस, शद्दाद, अबू उ़बैदा رضی اللہ عنھم से रिवायात मरवी हैं बाअ़ज़ हसन तो बाअ़ज़ सही लेकिन तमाम की तमाम रिवायात हुजूरअकरम  (صلى الله عليه وسلم) से नक़ल हैं के ये इब्तिला और आज़माईश गुनाहों को ख़त्म कर देती है। इसी तरह हज़रत आईशा (رضي الله عنه)ا की रिवायत है के आप  ने फ़रमायाः

((ما من مسلم یشاک شوکۃ فما فوقھا إلا رفعہ اللہ بھا درجۃ،
 وحط عنہ بھا خطیءۃ))

किसी मोमिन बंदे को अगर कांटा ही चुभ जाये तो अल्लाह इस (तकलीफ़) के ज़रीये इसके मुक़ाम को बुलंद फ़रमाता है, और इसके गुनाह को मिटा देता है।

एक दूसरी रिवायत में हैः ((إلا کتب اللہ لہ بھا حسنۃ))। उसकी वजह से इसके हिस्से में एक नेकी लिख दी जाती है। लेकिन ये सवाब और नेकी इस सूरत में हासिल होगी, जब वो फ़ैसलाए ख़ुदावंदी समझते हुए इस पर राज़ी रहे, इस तकलीफ़ पर सब्र और शुक्र का इज़हार करे और अल्लाह के सिवा किसी और से इसके इज़ाले (निवारण) की तवक़्क़ो ना करे। इस ताल्लुक़ से भी मुतअ़द्दिद अहादीस वारिद हुई हैं जिनमें से एक मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत सुहैब (رضي الله عنه) से मरवी है।

((عجباً لأمر المؤمن إن أمرہ کلہ لہ خیر، إن أصابتہ سراء شکر فکان خیراً 
لہ، وإن أصابتہ ضراء صبر فکان خیرًا لہ، ولیس ذالک لأحد إلا المؤمن))
मोमिन का मुआमला भी ख़ूब है, उसके हर काम में उसके लिए ख़ैर और भलाई है। जब इसको कोई ख़ुशी होती है और इस पर वो अल्लाह का शुक्र अदा करता है, या जब कोई परेशानी होती है और इस पर वो सब्र करता है, तो दोनों हालतों में इसके लिए सवाब है, और ये इनाम सिर्फ़ मोमिन के लिए है किसी और के लिए नहीं।

हज़रत अबू दरदा (رضي الله عنه) कहते हैं के मैंने अबुल क़ासिम (صلى الله عليه وسلم) को फ़रमाते सुना के अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का फ़रमान हैः

((یا عیسی إني باعث من بعدک أمۃ، إن أصابھم ما یحبون حمدوا اللہ، وإن أصابھم ما یکرھون احتسبوا وصبروا ولا حلم ولا علم، فقال یارب کیف یکون ھذا؟ قال أعطیھم من حلمي وعلمي))

ऐ ईसा! तुम्हारे बाद में एैसी उम्मत भेजने वाला हूँ जिन्हें जब कोई एैसी चीज़ मिल जाये जिसे वो पसंद करते हैं तो इस पर वो मेरी हम्द और सना करेंगे और जब परेशानी की हालत में हों जिसे वो पसंद ना करते हों तो वो अपना एहतिसाब करेंगे और इस पर सब्र करेंगे जबकि ना तो उनमें इतनी बर्दाश्त होगी और ना इन चीज़ों की हक़ीक़त का इ़ल्म होगा। हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः ऐ रब ये कैसे हो सकता है? अल्लाह سبحانه وتعالیٰ ने फ़रमाया के मैं उन्हें इ़ल्म और हिल्म (पुर उम्मीदी और बर्दाश्त और तहम्मुल) अपनी तरफ़ से अ़ता करूंगा।

तिबरानी में हज़रत इब्ने अ़ब्बास (رضي الله عنه) से मरवी है के रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((من أصیب بمصیبۃ بمالہ أو في نفسہ فکتمھا ولم یشکا إلی الناس، کان حقا علی اللہ أن یغفر لہ))

अगर किसी को उसके माल में नुक़्सान हुआ या उसकी ज़ात में कोई तकलीफ़ हो, और उसने लोगों से छुपाया और इस पर गिला शिकवा नहीं किया तो अल्लाह के लिए ज़रूरी है की इसको माफ़ कर दे।

हज़रत अनस (رضي الله عنه) कहते हैं के मैं रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)  को ये कहते सुना के अल्लाह سبحانه وتعالیٰ फ़रमाता हैः

((إذا ابتلیت عبدي بحبیبتہ فصبر عو ضتہ منھما الجنۃ))
जब मैं अपने बंदे को उसके किसी अ़ज़ीज़ की वफ़ात के ज़रीये आज़माता हूँ और बंदा इस पर सब्र करता है, तो इसके बदले में उसको जन्नत अ़ता करता हूँ।

बुख़ारी ने हज़रत अबू हुरैराह (رضي الله عنه) की एक रिवायत नक़ल की है के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)  ने फ़रमायाः

((ما من مسلم یشاک شوکۃ في الدنیا یحتسبھا إلا قضی بھا من خطایاہ یوم القیامۃ))
कोई मुसलमान अगर एक कांटा चुभने पर भी अपना एहतिसाब करे तो अल्लाह سبحانه وتعالیٰ क़यामत के दिन उसके गुनाहों को इस तकलीफ़ की वजह से माफ़ कर देगा।

सब्र के ताल्लुक़ से बाज़ हज़रात के इल्तिबास (Confusion) का इज़ाला करना ज़रूरी है। बाज़ लोगों का गुमान है के आदमी अपने अंदर ही ख़ुद को महसूर कर ले, लोगों से अ़लैहदगी इख़्तियार कर ले और ख़ुद तो मुनकर और एहले मुनकर से दूरी इख़्तियार कर ले लेकिन मुहर्रमात को पामाल होता, हुदूद को मुअत्तल और जिहाद को बेमानी होता देखता रहे और वो इस जानिब कोई तवज्जोह ना दे बल्कि अपने आपको गोशाए आफ़ियत में समेट ले और नही अनिल मुनकर के फ़रीज़े को तर्क कर दे, तो ऐसा शख़्स साबिर है।

या कोई ये समझे के सब्र के मानी अपने आप को इस अज़ीयत से मेहफ़ूज़ रखने और दुश्मन से तार्रुज़ ना करने के हैं। या अल्लाह سبحانه وتعالیٰ के दुश्मनों के आगे कलिमाए हक़ ना कहना या ऐसे अ़मल की जुर्रत ना करना जो अल्लाह سبحانه وتعالیٰ को पसंद है बल्कि दुबक कर एक कोने में बैठ जाना और फिर ख़ुद को ये दिलासा देना के वो सब्र कर रहा है। ये वो सब्र नहीं है जिस पर अल्लाह سبحانه وتعالیٰ ने जन्नत का वादा किया हैः

اِنَّمَا يُوَفَّى الصّٰبِرُوْنَ اَجْرَهُمْ بِغَيْرِ حِسَابٍ
हम सब्र करने वालों को बग़ैर हिसाब अज्र देंगे। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : ज़ुमर:10)
बल्कि ये कमज़ोरी (इज्ज) है जिस से रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)   पनाह मांगा करते थे।
((أعوذ باللہ من العجز والکسل والجبن والبخل والھم والحزن وغلبۃ الدین وقھر الرجال))

ऐ अल्लाह मैं तेरी पनाह मांगता हूँ रंज-ओ-ग़म से और मैं तेरी पनाह मांगता हूँ आजिजी़ और सुस्ती से और मैं पनाह चाहता हूँ कम हिम्मती और बुख़्ल से और मैं पनाह चाहता हूँ क़र्ज़ के बोझ से और लोगों के क़हर से।

सब्र ये है के आप कलिमाए हक़ को बुलंद करें, हक़ पर अ़मल करें, और राहे ख़ुदा में आने वाली दुशवारियों पर सब्र करें, सुस्ती और कमज़ोरी, इन्हिराफ़ और बेराह रवी इख़्तियार ना करें, सब्र वो है जिस को अल्लाह سبحانه وتعالیٰ ने तक़्वे के साथ ज़िक्र किया है, चुनांचे फ़रमायाः
اِنَّهٗ مَنْ يَّتَّقِ وَ يَصْبِرْ فَاِنَّ اللّٰهَ لَا يُضِيْعُ اَجْرَ الْمُحْسِنِيْنَ

यक़ीनन जो डरते हैं और सब्र का दामन थामे रहते हैं, अल्लाह (ऐसे) मुहसिनीन के अज्र को राएगाँ नहीं करता। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : यूसुफ़-90)

सब्र तो वो है जिस को अल्लाह سبحانه وتعالیٰ ने मुजाहिदीन का ख़ास्सा बताते हुए फ़रमायाः
وَ كَاَيِّنْ مِّنْ نَّبِيٍّ قٰتَلَ١ۙ مَعَهٗ رِبِّيُّوْنَ كَثِيْرٌ١ۚ فَمَا وَ هَنُوْا لِمَاۤ اَصَابَهُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَ مَا ضَعُفُوْا وَ مَا اسْتَكَانُوْا١ؕ وَ اللّٰهُ يُحِبُّ الصّٰبِرِيْنَ

ऐसे कितने ही नबी गुज़र चुके हैं जिन के साथ मिल कर बहुत से ख़ुदा परस्तों ने जंग की, अल्लाह की राह में जो मुसीबतें उन पर पड़ीं उनसे वो शिकस्ता दिल नहीं हुए। उन्होंने कमज़ोरी नहीं दिखाई, बातिल के आगे घुटने नहीं टेके। ऐसे ही साबिरों को अल्लाह पसंद करता है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआनः आले इमरानः 146)

सब्र कमज़ोरी को दूर कर के साबित क़दमी और कुव्वत पैदा करता है, किताबुल्लाह के अहकाम की पाबंदी इसी से पैदा होती है और उसके अहकाम से बचने के लिए आदमी हीलों और कट हुज्जतियों से इज्तिनाब करता है। सब्र वो है जो आदमी को अपने ख़ालिक़ और मालिक से क़रीब करता है ना के दूर।

فَنَادٰى فِي الظُّلُمٰتِ اَنْ لَّاۤ اِلٰهَ اِلَّاۤ اَنْتَ سُبْحٰنَكَ١ۖۗ اِنِّيْ كُنْتُ مِنَ الظّٰلِمِيْنَۚۖ
तारीकियों में पुकारा, नहीं कोई माबूद सिवाए तेरे, पाक है तू, यक़ीनन में ही ज़ालिमों में से हूँ। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : अल अन्बियाः 87)

यही वो सब्र है जो हिम्मतों को बुलंद करता है और जन्नत की मंज़िल को क़रीबतर करता है।
((صبرا آل یاسر ان موعدکم الجنۃ))
आले यासिर! सब्र करो, तुम्हारा मुक़ाम जन्नत है।
सब्र वो है जो हज़रत ख़ुबैब और हज़रत जै़द رضی اللہ عنھم ने किया।
(واللہ لا ارضی ان یصاب محمد بشوکۃ و انا سالم بأھلی)
ख़ुदा की क़सम! मैं ये कभी बर्दाश्त नहीं करूंगा के मुहम्मद  को एक कांटा भी चुभे और मैं अपने एहलो अ़याल में सही सलामत रहूं।
सब्र तो ये है के राहे ख़ुदा में होने वाली मलामत और रुसवाई की परवाह किए बग़ैर ज़ालिम का हाथ पकड़ लिया जाये।
((کلا واللہ لتاخذن علی ید الظالم و لتاطرنہ علی الحق اطرا ولتقصرنہ علی الحق قصرا او لیضربن اللہ قلوب بعضکم ببعض ولیلعنکم
 کما لعن بنی اسرائیل))
हरगिज नहीं! क़सम अल्लाह की! या तो तुम ज़ालिम का हाथ पकड़ लो, और उसको हक़ के लिए मजबूर करो और सीधे रास्ते पर ही पाबंद रखो, वर्ना अल्लाह तुम्हारे दिलों पर मोहर लगा देगा और तुम पर वैसे ही लानत होगी जिस तरह बनी इसराईल पर लानत की गई।
सब्र तो वो है जो सादिक़ और मसदूक़ सरवरे आलम मुहम्मदे अ़रबी (صلى الله عليه وسلم) के साथियों ने किया। अस्हाबे सुफ़्फ़ा ने किया, शेअ़बे अबी तालिब के असीरान ने किया, मुहाजरीने हब्शा ने किया, सिर्फ़ इस वजह से के उनका कहना था के हमारा रब अल्लाह है। सब्र देखना है तो मुहाजिरीन और अंसार का देखो जब उन्होंने एहले शिर्क, रूम और फ़ारिस से जिहाद के लिए पेश किया। सब्र का मुशाहिदा करना है तो अ़ब्दुल्लाह बिन अबी हुज़ाफ़ा (رضي الله عنه) का सब्र देखो।
सब्र ये है के नेकियों का हुक्म दिया जाये और बुराईयों से रोका जाये और राहे इलाही में ज़ालिम के सामने कमज़ोर ना पड़ा जाये। सब्र ये है के उन मुजाहिदीन में शामिल हुआ जाये जो ख़ुदा के दुश्मनों से क़िताल करने के लिए निकल खड़े हों। सब्र तो वो है जो अल्लाह के इस क़ौल का मिस्दाक़ होः
لَتُبْلَوُنَّ فِيْۤ اَمْوَالِكُمْ وَ اَنْفُسِكُمْ١۫ وَ لَتَسْمَعُنَّ مِنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَ مِنَ الَّذِيْنَ اَشْرَكُوْۤا اَذًى كَثِيْرًا١ؕ وَ اِنْ تَصْبِرُوْا وَ تَتَّقُوْا فَاِنَّ ذٰلِكَ مِنْ عَزْمِ الْاُمُوْرِ
तुम्हें माल और जान दोनों की आज़माईश पेश आकर रहेगी और तुम मुशरिकीन और एहले किताब से बहुत सी तकलीफ़देह बातें सुनोगे। अगर इन सब हालात में तुम सब्र और ख़ुदातरसी की रविश पर क़ायम रहो तो ये बड़े हौसले का काम है। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआने करीमः आले इमरानः -186)
और अल्लाह سبحانه وتعالیٰ के इस क़ौल पर खरा उतरता होः
وَ لَنَبْلُوَنَّكُمْ حَتّٰى نَعْلَمَ الْمُجٰهِدِيْنَ مِنْكُمْ وَ الصّٰبِرِيْنَ١ۙ وَ نَبْلُوَاۡ اَخْبَارَكُمْ
हम ज़रूर तुम लोगों को आज़माईश में डालेंगे ताकि तुम्हारे हालात की जांच करें और देख लें के तुम में मुजाहिद और साबित क़दम कौन हैं। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआनः मुहम्मद-31)
और अल्लाह के इस क़ौल पर ख़ुद को साबित कर दिखाएः
وَ لَنَبْلُوَنَّكُمْ بِشَيْءٍ مِّنَ الْخَوْفِ وَ الْجُوْعِ وَ نَقْصٍ مِّنَ الْاَمْوَالِ وَ الْاَنْفُسِ وَ الثَّمَرٰتِ١ؕ وَ بَشِّرِ الصّٰبِرِيْنَۙ۰۰۱۵۵ الَّذِيْنَ اِذَاۤ اَصَابَتْهُمْ مُّصِيْبَةٌ١ۙ قَالُوْۤا اِنَّا لِلّٰهِ وَ اِنَّاۤ اِلَيْهِ رٰجِعُوْنَؕ۰۰۱۵۶ اُولٰٓىِٕكَ عَلَيْهِمْ صَلَوٰتٌ مِّنْ رَّبِّهِمْ وَ رَحْمَةٌ١۫ وَ اُولٰٓىِٕكَ هُمُ الْمُهْتَدُوْنَ
हम ज़रूर बह ज़रूर तुम्हें ख़ौफ़-ओ-ख़तर, फ़ाक़ाकशी, जान-ओ-माल के नुक़सानात और आमदनियों के घाटे में मुब्तिला करके तुम्हारी आज़माइश करेंगे। इन हालात में जो लोग सब्र करें और जब कोई मुसीबत पड़े तो कहें हम अल्लाह ही के लिए हैं और उसी की तरफ़ पलट कर जाना है, उन्हें ख़ुशख़बरी दे दो। उन पर उनके रब की तरफ़ से बड़ी इनायात होंगी, उसकी रहमत उन पर साया करेगी। और यही लोग हैं जो हिदायत याब हैं। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआने करीमः अल बक़रह -155 से157)


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